"गाज़ा के मासूम दिलों पर जख्मों की दास्तान: जब बचपन ने खून से लिपटे ख्वाब देखे"



छोटी बच्ची फर्श पर अपनी बहन को देखती है। उसे लगता है कि बहन सो रही है। मासूम आँखें उस सुकून को ढूँढती हैं, जो अब कहीं खो चुका है। बहन के सिर से बहता खून उसे समझ नहीं आता। वो मासूमियत से सोचती है कि बहन जल्द ही उठ जाएगी, लेकिन हकीकत उससे बहुत दूर है।

उसे नहीं पता कि ये उसकी बहन का आखिरी दीदार है। वो नहीं जानती कि ये वो लम्हा है जब उसे हमेशा के लिए अलविदा कहना है। उसका नन्हा दिल इस कड़वी सच्चाई को समझने में नाकाम है।

ज़ायोनी कब्जे के आतंक ने गाज़ा में उसके बचपन को लूट लिया है। मासूमियत को बेरहमी से कुचल डाला है। वो किलकारियाँ जो गलियों में गूंजती थीं, अब सन्नाटे में खो गई हैं। वो हँसी जो हवाओं में गूँजती थी, अब दर्द और आहों में बदल चुकी है।

शांति के हर सपने को रौंद दिया गया है। नन्हीं आँखों में अब उम्मीद का कोई सितारा नहीं। दर्द और खोए हुए बचपन की ये तस्वीरें सवाल बनकर खड़ी हैं। क्या कभी ये दर्द खत्म होगा? क्या कभी मासूमियत का सूरज फिर से चमकेगा?


गाज़ा की ये चीखें इंसानियत से इंसाफ की गुहार लगा रही हैं। मगर दुनिया की आँखों पर बेख़बरी की पट्टी बंधी है। 


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