एक मां के कांपते हाथों में बेटे के अवशेष हैं। चेहरे पर गम की गहरी लकीरें और आंखों में आंसुओं का सैलाब है। यह गाज़ा की सरज़मीं है, जहां जख्मों की कहानियां हर कोने में बिखरी पड़ी हैं। उसने डेढ़ साल से भी ज्यादा वक्त तक उस मलबे के ढेर में अपने बेटे को तलाशा, जहां कभी उसका घर आबाद था। मगर एक बम ने उस घर को खंडहर में बदल दिया और उसके बेटे को हमेशा के लिए उससे छीन लिया।
उस मां की दर्द भरी दास्तां अकेली नहीं है। गाज़ा की हर गली, हर घर में ऐसी न जाने कितनी कहानियां दबी पड़ी हैं। मांओं की ममता की चीत्कारें, जो अपनों को ढूंढने की जद्दोजहद में हर रोज थक कर चूर हो जाती हैं। कभी किसी इमारत के मलबे में, तो कभी किसी वीरान गली में, उम्मीद की एक किरण लिए ढूंढती रहती हैं कि शायद कोई आवाज़ दे और कहे, "अम्मी, मैं यहां हूं।"
यह मंजर सिर्फ एक मां की तकलीफ का नहीं है, बल्कि उन हजारों मांओं का दर्द है जो अपनों को खो चुकी हैं या खोने के डर से हर पल कांपती रहती हैं। गाज़ा की ज़मीन पर न जाने कितनी माएं हैं जो अपने बच्चों को बचाने के लिए खुद को ढाल बना लेती हैं, मगर जब बमों का कहर बरसता है तो ममता की ये दीवारें भी ढह जाती हैं।
इन मांओं की आंखों में जो दर्द है, वह दुनिया से इंसानियत की दुहाई मांगता है। वह पूछता है कि आखिर कब तक उनकी कोख उजड़ती रहेगी? कब तक उनके घर खंडहर बनते रहेंगे? और कब तक मासूम जिंदगियां बेवजह कुर्बान होती रहेंगी?
गाज़ा की ये माएं सिर्फ मातम नहीं मना रहीं, बल्कि अपने हक और अपने बच्चों की जिंदगी के लिए एक जंग लड़ रही हैं। ये मंजर दुनिया के सामने एक सवाल बनकर खड़ा है—क्या मांओं की इस पीड़ा का कोई अंत होगा? क्या कभी गाज़ा की गलियों में फिर से खुशियों की आवाजें गूंजेंगी?