गाज़ा में बच्चे सुकून से सो रहे थे और अपनी माओं के सुहूर के लिए जगाने का इंतज़ार कर रहे थे...
वो एक नए दिन का, एक कबूल रोज़े का, और दुआ के लिए सुबह की अज़ान से चारों तरफ फैली शांति का ख़्वाब देख रहे थे।
जयोनि आतंकी ने कब्ज़े ने उन्हें मोहलत नहीं दी। उनकी आवाज़ से पहले ही बम बरसने लगे और वो मलबे के नीचे दब कर शहीद हो गए।
दुनिया देखती रही और टस से मस नहीं हुई... माओं की चीखें सुनीं मगर मुड़कर नहीं देखा... मलबे के नीचे पड़े नन्हे-मुन्ने जिस्मों को देखा लेकिन पलक तक नहीं झपकाई।
आख़िर किस गुनाह की सज़ा में उन्हें मार डाला गया? किस जुर्म के लिए उन्हें ज़िंदगी से महरूम कर दिया गया? मौत कैसे बच्चों की तक़दीर बन गई और ख़ामोशी कैसे दुनिया की ज़ुबान बन गई?
गाज़ा अकेला नहीं रो रहा है, बल्कि हर दिन इंसानियत की शर्म को बेनक़ाब कर रहा है।