ग़ज़ा की तंग गलियों में फिर एक चीख़ दफ़न हो गई। एक ज़ायोनी मिसाइल ने एक मासूम फ़िलिस्तीनी बच्चे के नन्हे जिस्म को दो हिस्सों में बाँट दिया। वह खेलते-खेलते कब मिट्टी में मिल गया, किसी को समझ नहीं आया। बस मलबे के नीचे से उसके बेजान टुकड़े मिले, और आकाश में गूंजती मातमी चीखें।
यह पहली बार नहीं हुआ। यह रोज़ हो रहा है। एक नहीं, सैकड़ों नहीं, हज़ारों मासूम जिस्म ज़मीन पर बिखरे पड़े हैं। उनकी आँखों में खिलौनों और रंगों के ख़्वाब नहीं, बल्कि आग और मौत का खौफ है। ज़ायोनी कब्ज़ा न सिर्फ़ जानें ले रहा है, बल्कि जिस्म के टुकड़े कर रहा है, चेहरों को मिटा रहा है – जैसे फ़िलिस्तीनी होना ही दुनिया का सबसे बड़ा गुनाह हो।
कत्ल सिर्फ़ बमों से नहीं हो रहा, बल्कि दुनिया की ख़ामोशी से भी हो रहा है। वही दुनिया, जो इंसानियत के सबक पढ़ाती है, वही दुनिया जो क़ानून और इंसाफ़ की बातें करती है, वही दुनिया जो एक जान की क़ीमत पर महफ़िलें सजाती है – आज वही दुनिया ग़ज़ा के टुकड़े-टुकड़े जिस्मों पर चुप है।
जब कोई और देश हमला करता है, तो दुनिया उठकर इंसाफ़ मांगती है। लेकिन जब ग़ज़ा में बच्चों के जिस्म फटते हैं, जब उनकी हड्डियां मलबों में दबती हैं, जब उनके माँ-बाप लाशों से लिपटकर रोते हैं – तो यही दुनिया अचानक अंधी, गूंगी और बहरी हो जाती है।
यह ज़ुल्म कब तक चलेगा?
कब तक फ़िलिस्तीनी बच्चों के जिस्म इस बेरहमी से कुचले जाएंगे? कब तक दुनिया अपनी चुप्पी से इस ज़ुल्म को ताक़त देती रहेगी? क्या दुनिया तब जागेगी जब ग़ज़ा की धरती पर एक भी मासूम सांस नहीं लेगा?
यह वक़्त ख़ामोश रहने का नहीं, आवाज़ उठाने का है। यह वक़्त देखने का नहीं, कुछ करने का है। हर लफ्ज़, हर आवाज़, हर एहसास मायने रखता है। जब तक दुनिया सोई रहेगी, ग़ज़ा के मासूम यूँ ही कुचले जाते रहेंगे।