गाज़ा में एक पत्रकार खुद शहीद होने से पहले ही सब कुछ लिखकर चला गया और किसी को ही जिम्मेदारी थी जब कभी भी मैं शहीद हो जाऊं तो मेरा ये पैगाम तमाम मुस्लिमौ तक फैला देना आपकी जिम्मेदारी है इसे पूरा पढ़ें और दूसरों तक जरूर पहुंचाएं
जब ये सब शुरू हुआ, तब मेरी उम्र सिर्फ़ 21 साल थी। मैं एक यूनिवर्सिटी का स्टूडेंट था, जिसके भी दूसरे नौजवानों की तरह कुछ सपने थे। लेकिन पिछले 18 महीनों से, मैंने अपनी ज़िंदगी का हर लम्हा अपनी कौम के लिए वक़्फ़ कर दिया।
मैंने उत्तरी गाज़ा में होने वाले जुल्मों को हर मिनट रिकॉर्ड किया, ताकि दुनिया को वो हक़ीक़त दिखा सकूं, जिसे छुपाने की कोशिश की जा रही थी। मैं फुटपाथों पर, स्कूलों में, टेंटों में – जहाँ भी जगह मिली, वहीं सोया। हर दिन ज़िंदा रहने की जद्दोजहद थी। मैंने भूख भी सही, तकलीफें भी सही, मगर अपने लोगों को अकेला नहीं छोड़ा।
अल्लाह गवाह है, मैंने एक सहाफी (पत्रकार) के तौर पर अपना फर्ज़ निभाया। मैंने सच बोलने के लिए अपनी जान दांव पर लगा दी। और अब, आखिरकार मुझे सुकून मिला है – वो सुकून, जो मैंने पिछले डेढ़ साल से महसूस नहीं किया था। मैंने ये सब फिलिस्तीन के हक़ में किया, क्योंकि मुझे यकीन था कि ये ज़मीन हमारी है। और इसकी हिफ़ाज़त करते हुए मरना मेरे लिए सबसे बड़ा फ़ख्र है।
अब मैं आप सबसे एक इल्तिजा करता हूँ: गाज़ा के बारे में बोलना बंद मत करो। दुनिया को इससे नज़र हटाने मत दो। लड़ाई जारी रखो, हमारी कहानियाँ बताते रहो – जब तक फिलिस्तीन आज़ाद नहीं हो जाता।
– आख़िरी बार, होस्साम शबात, उत्तरी गाज़ा से।