"फिर बहा ग़ाज़ा के मासूमों का ख़ून, ज़ायोनी बर्बरियत जारी"


 यह दुनिया हमेशा इंसाफ़, अमन और इंसानी हुक़ूक़ (मानवाधिकार) की बातें करती है, लेकिन जब मामला ग़ाज़ा के मज़लूम बच्चों का आता है, तो यही दुनिया अंधी, बहरी और गूंगी बन जाती है।


हर रोज़ ग़ाज़ा में मासूम बच्चों के जिस्म टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते हैं। उनके घरों पर बम बरसाए जाते हैं। उनके नन्हे जिस्म मलबे में दबकर दम तोड़ देते हैं। लेकिन इस दोहरी दुनिया को जैसे कुछ नज़र ही नहीं आता।

जो ताक़तें दूसरों को इंसानियत का सबक सिखाती हैं, वही आज ग़ाज़ा के जख़्मी बच्चों की चीख़ें सुनने को तैयार नहीं। जब किसी और मुल्क में ज़रा सी हलचल होती है, तो दुनिया इंसाफ़ और मानवाधिकार के नाम पर बवाल मचा देती है। लेकिन जब ग़ाज़ा के मासूमों का ख़ून बहता है, तो वही दुनिया ख़ामोश रहती है।


क्या इंसाफ़ का मतलब सिर्फ़ ताक़तवरों के लिए होता है? क्या इंसानियत मज़लूमों तक नहीं पहुंचती?


ग़ाज़ा के हर पत्थर, हर ढहे हुए मकान और हर बहते हुए आँसू से यह सवाल उठ रहा है – आख़िर कब तक?




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